Tuesday 27 March 2012

तिरस्कार अपनों का हम कहते हैं यही है संस्कृति,

उसको तदपकर क्या पायेगा जिसने की है तेरी कृति!

प्रकृति को भी माँ कहते हैं पर जब वो हो जाती कुपित,

गिर जाते हैं धरा पर टूटकर, होते हैं सूखे पात प्रतीत!

न करो माँ का अपमान, वो अपमान तुम्हारा ही होगा,

माँ-बाप का करो सम्मान इससे चहूँ ओर सम्मान तुम्हारा ही होगा!

याद करो वो क्षण जब हुआ था इस धरा पर तुम्हारा आगमन,

आँखें आर्द्र थीं और प्रफुल्लित हर्षित था उनका कोमल मन!

माँ के आँचल ने संभाला था तुमको चाहे विपदा हो कितनी भी बड़ी,

लगता है आयी है मुश्किल की घडी,

बेटों ने ही माँ की हालत ये करी!

बस और न तरसा इनको अब और न इनको पराया कर,

माँ-बाप है तेरे ये लोग चाहें जैसे भी हो अपनाया कर!
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