Monday 5 November 2012

जो कुछ प्राप्त हो जाये उसी में सन्तुष रहना और सुख हो या दुःख या फिर अमीरी हो या गरीबी या फिर मान हो या अपमान हर स्थिति में हो सामान रहता है और अपने ही आत्मा में जो रमण करता है वो योगी मानने योगय है. भगवान श्री कृषण गीता में ये कहते हैं. संसार में असल में सुख है ही नहीं. हर कोई किसी न किसी संकट और दुःख के चिंता में डूबा है. जिसे एक मकान है वो कोठी के चक्कर में हैं, जिसे एक कार है वो और कोई दूसरा मॉडल नयी कार लेने के लिए परेशान है. जिसे एक व्यापर है वो और कोई बड़ा व्यापर करने के चक्कर में है ताकि और बड़ा धनि कहलाये. कोई रोटी के लिए परेशान है तो कोई धोती के लिए परेशान है. किसी को अनेक रोग सताए है. कोई अपने पुत्र और पुत्री से परेशान है तो कोई अपने निर्धनता से और कर्ज परेशान है. मतलब की कोई अपने को सुखी और हर चिंता से परेशान नहीं है, ऐसा नहीं कह सकता. इसलिए कहा गया है की "नानक दुखिया सब संसार सुखी वही जो राम के दास".सभी दुखी है इस सन्सर में............

ललीत जोशी

Saturday 27 October 2012


जब कभी मैं उदास होता हूँ
एक बात वो याद कर लेता हूँ
जो जीते जी दादी ने कहा था
उस बात पे गौर फरमाता हूँ
मुझे,अकेला,उदास,खामोश
चुप ,शांत,हताश ,निराश,परेशान
जब कभी मेरी दादी देख लेती थी
मुझे एक बात बताती थी
भगवान ने तुम्हे हाथ,पैर
और ये मानव शरीर दिया हैं
तुम कही भी ,कुछ भी ईमानदारी से करके
दो वक़्त की रोटी कमा सकते हो
जरा सोचो उनके बारे में जिनकी आंखे नहीं हैं
फिर भी वे जिन्दगी को गले लगाके जी रहे हैं
किसी के पास दो बीघा जमीन भी नहीं हैं
वे दूसरों के खेतों में फसल उपजाके अपना घर चला रहे हैं
तुम तो उनसे बेहतर स्थिति में हो फिर भी इतने चिंतित हो
जब कभी मैं उदास होता हूँ
दादी की ये बात मुझे जीने को मजबूर करती हैं

Saturday 28 July 2012


मत पूछिए ये दिल चाक-चाक क्यूँ है
एहसासों को पत्थर की पोशाक क्यूँ है?
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हालात का तर्जुमा तुम्हारी निगाहों में है
दर्द को छुपाने की फिर फिराक़ क्यूँ है?
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तुम्हारे आँकड़ों पर यकीन करें भी कैसे?
ज़हर भरा आख़िर फिर खुराक़ क्यूँ है?
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माना परिन्दे छोड़े गये हैं उड़ान भरने को
नकेल से बँधी फिर इनकी नाक क्यूँ है?
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खुद संभल जाओगे मत माँगो सहारा
रहनुमा में शुमार ओबामा बराक क्यूँ है?

Tuesday 10 July 2012

सबसे बड़ा धर्म -माता पिता की सेवा करना
भारत वर्ष में एक से बढ़कर एक जीवात्मा पैदा हुए है ,भारत की मिटटी में जन्म लेना ही इश्वर की बहुत बड़ी कृपा है ,लेकिन इस धराधाम में जिसने जन्म लेकर भी कुछ पुण्य नहीं कमाया उसका जीवन पशु के सामान है , भारत की मिटटी में जन्म लेने के लिए देवता भी कितने जप तप करते है , लेकिन आज के समाज में कोई किसी का नहीं है , उसे सिर्फ अपने सुख से मतलब है , जिस मिटटी में जन्म लिया है उसी को आज बेच रहे है , जिस माँ ने नौ महीने अपने गर्भ में पाला है आज वो दर -दर की ठोकरे खा रही है .. वेदों में कहा गया है की -|पिता धर्म है ,पिता स्वर्ग है तथा पिता ही तप है ,आज भारतीय युवाओं के पास अपने बुजुर्गों के लिए समय नहीं है |जबकि भारतीय समाज में माता-पिता की सेवा को समस्त धर्मों का सार है |समस्त धर्मों में पुण्यतम् कर्म :माता-पिता की सेवा ही है ,पाँच महायज्ञों में भी माता -पिता की सेवा को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया है पिता के प्रसन्न हो जाने पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं |माता में सभी तीर्थ विद्यमान होते हैं |जो संतान अपने माता -पिता को प्रसन्न एवम संतुष्ट करता है उसे गंगा स्नान का फल प्राप्त होता है |जो माता -पिता की प्रदक्षिणा करता है उसके द्वारा समस्त पृथ्वी कीप्रदक्षिणा हो जाती है |जो नित्य माता -पिता को प्रणाम करता है उसे अक्षय सुख प्राप्त होता है |जब तक माता -पिता की चरण रज पुत्र के मस्तक पर लगी रहती है तब तक वह शुद्ध एवम पवित्र रहता है |माता पिता का आशीर्वाद न हो तो हम जीवन में कभी भी सफल नहीं हो सकते है.

Saturday 21 April 2012


   एक मित्र ने हिंदी बोलते समय कुछ अंग्रेजी शब्दो के प्रयोग पर कड़ी आपत्ति की, मन  को यह बात बहुत चुभी, हिंदी कोई मृत भाषा नहीं .....यह तो अत्यंत जीवंत भाषा  है जिसमें अनेक भाषाओँ के शब्दों को स्वयं में समाहित करने की क्षमता है ....अन्य भाषाओँ के  शब्दों को हटा दिया जाए हो हिंदी ही न बचे .......किसी भाषा से उसकी व्यावहारिकता का गुण छीनना एक अपराध है ...........

संस्कृत की गंगोत्री से निकली 
हिंदी गंगा की धारा
अमय रस से अपने 
जन- मन सिंचित कर डाला
सब को समाहित कर स्वयम् में
हुई विस्तृत इसकी धारा 
किसी भाषा ने  इसके 
प्रवाह में अवरोध न डाला,
फिर क्यों कुछ रूदियों में बांध कर 
इसकी गति में रोध हम डाले 
भाषा से सहजता का गुण छीन 
क्यों किलिष्ट उसे कर डाले

कितनी ही जलधाराओं को 
खुद में समेट
गंगा गंगा ही रहती है 
वैसे ही कुछ शब्दों के प्रभाव से 
हिंदी क्या हिंदी न रहती
तो
संकुचित  मानसिकता को त्यज 
भाषा को दें व्यावहारिक रूप 
सुन्दर है यह भाषा इतनी 
ना बनाएँ इसको दुरूह
ललीत जोशी

ललीत जोशी

Friday 6 April 2012

सभी ब्लागर को हनुमान जयन्ती की र्हादीक शुभेछा

Tuesday 27 March 2012

तिरस्कार अपनों का हम कहते हैं यही है संस्कृति,

उसको तदपकर क्या पायेगा जिसने की है तेरी कृति!

प्रकृति को भी माँ कहते हैं पर जब वो हो जाती कुपित,

गिर जाते हैं धरा पर टूटकर, होते हैं सूखे पात प्रतीत!

न करो माँ का अपमान, वो अपमान तुम्हारा ही होगा,

माँ-बाप का करो सम्मान इससे चहूँ ओर सम्मान तुम्हारा ही होगा!

याद करो वो क्षण जब हुआ था इस धरा पर तुम्हारा आगमन,

आँखें आर्द्र थीं और प्रफुल्लित हर्षित था उनका कोमल मन!

माँ के आँचल ने संभाला था तुमको चाहे विपदा हो कितनी भी बड़ी,

लगता है आयी है मुश्किल की घडी,

बेटों ने ही माँ की हालत ये करी!

बस और न तरसा इनको अब और न इनको पराया कर,

माँ-बाप है तेरे ये लोग चाहें जैसे भी हो अपनाया कर!
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