Wednesday 12 October 2011


सुख-वरण प्रभु, नारायण, हे, दु:ख-हरण प्रभु, नारायण, हे,
तिरलोकपति, दाता, सुखधाम, स्वीकारो मेरे परनाम,
प्रभु, स्वीकारो मेरे परनाम...

मन वाणी में वो शक्ति कहाँ, जो महिमा तुम्हरी गान करें,
अगम अगोचर अविकारी, निर्लेप हो, हर शक्ति से परे,
हम और तो कुछ भी जाने ना, केवल गाते हैं पावन नाम ,
स्वीकारो मेरे परनाम, प्रभु, स्वीकारो मेरे परनाम...

आदि मध्य और अन्त तुम्ही, और तुम ही आत्म अधारे हो,
भगतों के तुम प्राण, प्रभु, इस जीवन के रखवारे हो,
तुम में जीवें, जनमें तुम में, और अन्त करें तुम में विश्राम,
स्वीकारो मेरे परनाम, प्रभु, स्वीकारो मेरे परनाम...

चरन कमल का ध्यान धरूँ, और प्राण करें सुमिरन तेरा,
दीनाश्रय, दीनानाथ, प्रभु, भव बंधन काटो हरि मेरा,
शरणागत के (घन)श्याम हरि, हे नाथ, मुझे तुम लेना थाम,
स्वीकारो मेरे परनाम, प्रभु, स्वीकारो मेरे परनाम...

Tuesday 11 October 2011

माँ

कमर झुक गई

माँ बूढ़ी हो गई

प्यार वैसा ही है

याद है

कैसे रोया बचपन में सुबक-सुबककर

माँ ने पोंछे आँसू

खुरदरी हथेलियों से

कहानी सुनाते-सुनाते

चुपड़ा ढेर सारा प्यार गालों पर

सुबह-सुबह रोटी पर रखा ताज़ा मक्*खन

रात में सुनाई

सोने के लिए लोरियाँ

इस उम्र में भी

थकी नहीं

माँ तो माँ है।

Saturday 8 October 2011

maaaa


नींद परी लोरी गाये; मन झुलाए झूलना- की ध्वनि कानों में पड़ते ही मन अनायास ही अतीत की सुनहरी यादों में खो जाता है। वो भी क्या दिन थे बचपन के? न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर, की उक्ति बचपन के काल-खंड पर एकदम उपयुक्त बैठता था। नानी-दादी की कहानियां, दादाजी की छड़ी, नानाजी का चश्मा; किसी कारू के खजाने से कम न थे।
हाँ, इन सबमें माँ की लोरी का स्थान कोई न ले सकता था। मेरी स्मृति में बचपन से जुडी कुछ धुंधली-सी स्मृतियाँ जब-तब कौन्धतीं रहती हैं। मसलन, रात में सोते वक़्त माँ की वह लोरी जो मुझे निंदिया रानी के आगोश में जाने को मजबूर कर देती थी। मुझे याद है; जब कभी मुझे नींद नहीं आती थी तब मेरी जिद पर माँ मुझे लोरी सुनाकर आसानी से सुला देती थी| यदि नींद; उनींदी सी हो तब तो माँ की लोरी दुनिया की सबसे अनमोल नेमत होती थी। वह मंज़र याद आते ही- मानो वक़्त ठहर कर उसी काल-खंड में जा पहुँचता है।
माँ की लोरी; एक तरह से मेरे प्रति उसके निश्चल प्रेम एवं त्याग को प्रदर्शित करती थी। मैं ही क्यूँ, अधिकाँश लोगों को अपने बचपन में माँ द्वारा सुनाई गयी लोरियां स्मृति पटल पर अंकित व अमर होंगी। माँ द्वारा गई गयी लोरियां या तो ठेठ भाषा; जिसे हम आम ग्रामीण परिवेश की भाषा कह सकते हैं; में होती थीं या प्रसिद्ध भारतीय फिल्म की रटी-रटाई गीत-छाप नुमा नगमें होती थीं।
याद कीजिए, आजा निंदिया आजा,नैनन बीच समां जा, आजा निंदिया रानी आ जा, आ जा रे तू आ निंदिया, आजा प्यारी निंदिया, जैसी लोरियां जब माँ अपनी आवाज़ में गाती, तो मानो संसार थमता-सा प्रतीत होता था। ऐसा लगता था कि माँ लोरी के माध्यम से मुझे स्वप्नों के ऐसे लोक में पंहुचा देना चाहती हो, जहाँ सिर्फ मुस्कराहट ही मुस्कराहट हो। कभी गोदी में तो कभी झूले में, लोरी और माँ का अटूट रिश्ता मन में सुखद अनुभूतियों का अहसास करा जाता था। माँ की गाई लोरी सोते समय मेरे स्मृति पटल पर अंकित है|
सिनेमा में भी माँ की ममता को प्रदर्शित करने का सबसे बड़ा उदाहरण लोरी को ही दिखाया है| अब कभी टी.वी. या रेडियो पर कोई लोरी सुनता\देखता हूँ तो आँखें नम हो जाती हैं और हो भी क्यूँ न; यह तो प्रकृति का नियम है; महसूस करना ही हमारा स्वभाव है| फिर माँ की लोरी का तो जवाब ही नहीं| समय कितना निर्दयी होता है यह आज समझ में आ रहा है| माँ है, उसकी ममता है पर समय के साथ लोरी नहीं है| लोरी का हमारे जीवन से यूँ चला जाना कचोटता-सा है|
फिर आधुनिकता की अंधी दौड़ ने भी लोरी को सार्वजनिक जीवन से बेदखल-सा कर दिया है| आया संस्कृति के मौजूं दौर में जींस-पैंट धारी माँ को लोरी जैसी किसी विधा की जानकारी ही नहीं है| बच्चे भी कार्टूनों को देखकर सो रहे हैं| माँ अगर बच्चे के पास बैठती भी है तो उसकी पढ़ाई के बारे में पूछ-पूछ कर उसे सोने हेतु मजबूर कर देती है|
समाज में आये इस परिवर्तन को देखकर मन द्रवित है| क्या लोरी का वही सुनहरा दौर कभी वापस आ पायेगा, क्या आज के बच्चे उसी शिद्दत से लोरी को आत्मसात कर पायेंगे? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब शायद कोई नहीं दे सकता| हाँ, उस सुनहरे दौर को यादों के रूप में सहेज कर तो रखा ही जा सकता है, जिससे आने वाली पीढ़ी को लोरी और उससे जुड़े एहसास के बारे में बताया जा सके ताकि उन्हें एहसास हो की उन्होंने क्या खो दिया?

Tuesday 4 October 2011

lalit joshi


भगवान हर जगह नहीं हो सकता इस कारण उसने माँ को बनाया। यह वाक्य माँ के सम्मान में लगभग हर जगह लिखा मिल जाता है। हमारा मानना इससे कुछ अलग है और वह ये कि धरती पर माँ ही है जिससे भगवान का अस्तित्व कायम है। 
माँ के सम्मान, आदर में हमें बहुत कुछ बताया गया, बहुत कुछ पढ़ाया गया। यह एक ऐसा शब्द है जिसके लिए शायद ही किसी के मन में निरादर की भावना रही होगी। माँ के दयास्वरूप, ममतामयी, परोपकारी स्वरूप की कल्पना हम सबने की है और उसको वास्तविकता में भी देखा है। इन कोमलकांत स्वरूपों के साथ-साथ हमने माँ का शक्तिशाली, शत्रुमर्दन स्वरूप भी माँ दुर्गा के रूप में सँवारा है। 
इधर देखने में आ रहा है कि माँ के ममतामयी और शक्तिशाली स्वरूप के अतिरिक्त उसका एक और रूप सामने आया है। इस रूप को हम यदि देखें तो घृणा होती है।माँ के इस घृणास्पद स्वरूप के क्या कारण हो सकते हैं, इस पर तो बहुत गहन सामाजिक शोध की आवश्यकता है।
माँ के इस रूप को कई सालों, माहों, दिनों से देखा जा रहा था किन्तु हमारा ध्यान इस पर हाल ही में इसलिए और गया क्योंकि पिछले एक सप्ताह में तीन घटनाओं ने माँ का यही रूप दिखाया। एक माँ द्वारा अपने दो बच्चों की हत्या इस कारण कर दी गई क्योंकि वे बच्चे उसके प्रेम-सम्बन्ध में बाधक बन रहे थे। एक माँ अपने तीन बच्चों, जिनमें एक तीन माह का दुधमुँहा बच्चा भी शामिल है, को छोड़ कर अपने प्रेमी के साथ भाग गई। एक और घटना में एक माँ अपने नवजात बच्चे को सड़क पर फेंक कर भाग गई, बाद में इस बच्चे की मृत्यु हो गई। 
इस तरह की घटनायें अब समाज में आये दिन घटतीं हैं। इन घटनाओं को देखकर किसी गीत या आरती की एक पंक्ति याद आती है कि ‘पूत कपूत सुने हैं जग में, माता सुनी न कुमाता।’ क्या अब माता भी कुमाता कहलायेगी? आधुनिकता के वशीभूत क्या माँ के स्वरूप भी बदले-बदले नजर आयेंगे? क्या आज की महिला स्वयं को माँ नहीं एक स्त्री ही समझेगी?