Saturday 8 October 2011

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नींद परी लोरी गाये; मन झुलाए झूलना- की ध्वनि कानों में पड़ते ही मन अनायास ही अतीत की सुनहरी यादों में खो जाता है। वो भी क्या दिन थे बचपन के? न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर, की उक्ति बचपन के काल-खंड पर एकदम उपयुक्त बैठता था। नानी-दादी की कहानियां, दादाजी की छड़ी, नानाजी का चश्मा; किसी कारू के खजाने से कम न थे।
हाँ, इन सबमें माँ की लोरी का स्थान कोई न ले सकता था। मेरी स्मृति में बचपन से जुडी कुछ धुंधली-सी स्मृतियाँ जब-तब कौन्धतीं रहती हैं। मसलन, रात में सोते वक़्त माँ की वह लोरी जो मुझे निंदिया रानी के आगोश में जाने को मजबूर कर देती थी। मुझे याद है; जब कभी मुझे नींद नहीं आती थी तब मेरी जिद पर माँ मुझे लोरी सुनाकर आसानी से सुला देती थी| यदि नींद; उनींदी सी हो तब तो माँ की लोरी दुनिया की सबसे अनमोल नेमत होती थी। वह मंज़र याद आते ही- मानो वक़्त ठहर कर उसी काल-खंड में जा पहुँचता है।
माँ की लोरी; एक तरह से मेरे प्रति उसके निश्चल प्रेम एवं त्याग को प्रदर्शित करती थी। मैं ही क्यूँ, अधिकाँश लोगों को अपने बचपन में माँ द्वारा सुनाई गयी लोरियां स्मृति पटल पर अंकित व अमर होंगी। माँ द्वारा गई गयी लोरियां या तो ठेठ भाषा; जिसे हम आम ग्रामीण परिवेश की भाषा कह सकते हैं; में होती थीं या प्रसिद्ध भारतीय फिल्म की रटी-रटाई गीत-छाप नुमा नगमें होती थीं।
याद कीजिए, आजा निंदिया आजा,नैनन बीच समां जा, आजा निंदिया रानी आ जा, आ जा रे तू आ निंदिया, आजा प्यारी निंदिया, जैसी लोरियां जब माँ अपनी आवाज़ में गाती, तो मानो संसार थमता-सा प्रतीत होता था। ऐसा लगता था कि माँ लोरी के माध्यम से मुझे स्वप्नों के ऐसे लोक में पंहुचा देना चाहती हो, जहाँ सिर्फ मुस्कराहट ही मुस्कराहट हो। कभी गोदी में तो कभी झूले में, लोरी और माँ का अटूट रिश्ता मन में सुखद अनुभूतियों का अहसास करा जाता था। माँ की गाई लोरी सोते समय मेरे स्मृति पटल पर अंकित है|
सिनेमा में भी माँ की ममता को प्रदर्शित करने का सबसे बड़ा उदाहरण लोरी को ही दिखाया है| अब कभी टी.वी. या रेडियो पर कोई लोरी सुनता\देखता हूँ तो आँखें नम हो जाती हैं और हो भी क्यूँ न; यह तो प्रकृति का नियम है; महसूस करना ही हमारा स्वभाव है| फिर माँ की लोरी का तो जवाब ही नहीं| समय कितना निर्दयी होता है यह आज समझ में आ रहा है| माँ है, उसकी ममता है पर समय के साथ लोरी नहीं है| लोरी का हमारे जीवन से यूँ चला जाना कचोटता-सा है|
फिर आधुनिकता की अंधी दौड़ ने भी लोरी को सार्वजनिक जीवन से बेदखल-सा कर दिया है| आया संस्कृति के मौजूं दौर में जींस-पैंट धारी माँ को लोरी जैसी किसी विधा की जानकारी ही नहीं है| बच्चे भी कार्टूनों को देखकर सो रहे हैं| माँ अगर बच्चे के पास बैठती भी है तो उसकी पढ़ाई के बारे में पूछ-पूछ कर उसे सोने हेतु मजबूर कर देती है|
समाज में आये इस परिवर्तन को देखकर मन द्रवित है| क्या लोरी का वही सुनहरा दौर कभी वापस आ पायेगा, क्या आज के बच्चे उसी शिद्दत से लोरी को आत्मसात कर पायेंगे? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब शायद कोई नहीं दे सकता| हाँ, उस सुनहरे दौर को यादों के रूप में सहेज कर तो रखा ही जा सकता है, जिससे आने वाली पीढ़ी को लोरी और उससे जुड़े एहसास के बारे में बताया जा सके ताकि उन्हें एहसास हो की उन्होंने क्या खो दिया?

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